पूर्वोत्तर का रक्षा कवच इनर लाइन परमिट

पूर्वोत्तर में प्रवेश का कई दशकों पुराना संघ का सपना पूरा करने वाली भाजपा पूर्वोत्तर को गंवाने का जोखिम नहीं उठा सकती थी. पिछली गलतियों से सबक लेकर सरकार ने इनर लाइन परमिट के जरिए अपने इस नए किले को सुरक्षित रखने का दांव चला है.

नागरिकता संशोधन विधेयक के लोकसभा में पेश होने के साथ जहां असम में लोग सड़कों पर उतर आए थे वहीं उसके पड़ोसी राज्य मणिपुर में सरकार ने उत्सव मनाने के लिए एक दिन की सरकारी छुट्टी की घोषणा कर दी. गृहमंत्री मणिपुर के लोगों की ओर से प्रधानमंत्री को धन्यवाद कर रहे थे. पूर्वोत्तर का एक प्रदेश जहां जल रहा था वहां दूसरे राज्य में मंगलगान हो रहा था यह बात हैरान करने वाली थी. दरअसल गृह मंत्री मणिपुर की एक ऐसी पुरानी मांग को स्वीकार कर लिया था जिसके लिए वहां के लोग कई दशकों से संघर्ष कर रहे थे. वह मांग थी- राज्य को इनर लाइन परमिट या आईएलपी में शामिल किए जाने की घोषणा की. गृहमंत्री ने कहा, “हम पूर्वोत्तर के लोगों की सामाजिक, भाषाई और सांस्कृतिक पहचान कायम रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं. कई दशकों से चली आ रही इस समस्या का निदान कर लिया गया.” संसद ने मेजें थपथपाकर इसका स्वागत किया. क्या है यह इनर लाइन परमिट जिसकी चर्चा की जरूरत एक ऐसे विधेयक को पेश करने के दौरान हुई जिसको लेकर पूर्वोत्तर में बहुत उबाल आया था. और मणिपुर ने इसका जश्न क्यों मनाया.    

इनर लाइन परमिट (आईएलपी) है क्या?

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इनर लाइन परमिट दरअसल अंग्रेजी हुकूमत के दौर का एक प्रचलित शब्द है. सरल शब्दों में कहें तो यह एक यात्रा दस्तावेज़ है, जिसे भारत सरकार अपने नागरिकों के लिए देश के किसी संरक्षित क्षेत्र में यात्रा के लिए जारी करती है. आप इसे एक तरह का परमिट कहें जिसके साथ आप किसी संरक्षित क्षेत्र में यात्रा कर सकते हैं वह भी मात्र उतने ही दिनों के लिए जितने दिन की इजाजत उसमें दी गई है. निर्धारित अवधि के बाद उस क्षेत्र में रुकने से जुर्माना या अन्य कोई सजा के अधिकारी हो सकते हैं.

अंग्रेज़ 1873 में इस प्रावधान को यह कहते हुए लेकर आए थे कि देश के स्थानीय जातीय समूहों या मूल निवासियों के संरक्षण के लिए यह जरूरी है. मूल निवासी अपने बीच बाहरी लोगों को पसंद नहीं करते. इससे संघर्ष का खतरा तो रहता ही है साथ ही इन मूल नस्लों, उनकी भाषा, संस्कृति आदि पर भी खतरा रहता है. हालांकि ऐसे आरोप भी लगाए जाते हैं कि अंग्रेजों ने मिशनरियों को आईएलपी देकर इन क्षेत्रों में भेजा और बड़े पैमाने पर धर्म-परिवर्तन कराया. उन्हें रोकने-टोकने वाला कोई बाहरी हो नहीं सकता था और उन्होंने भोले-भाले आदिवासियों को झांसे में लिया और कथित रूप से उन्हें ईसाई बनाया.

इसके पीछे अंग्रेजों का एक और निहित स्वार्थ था. बंगाल से विद्रोह की आग पूर्वोत्तर में न फैल जाए इसके लिए भी इसका इस्तेमाल किया गया. वे समझते थे कि पूर्वोत्तर के दुरूह क्षेत्रों को अपनी पकड़ में बनाए रखना संभव नहीं होगा यदि अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देने वाले वहां पहुंच गए. उन्हें इस क्षेत्र के स्वतंत्रता संग्राम के सिपाहियों की सुरक्षित पनाहगार बनने का भी खतरा दिखता था. इसलिए 1873 के बंगाल-ईस्टर्न फ्रंटियर रेग्यूलेशन एक्ट में ब्रितानी हितों को ध्यान में रखकर ये कदम उठाया गया था जिसे आज़ादी के बाद भारत सरकार ने कुछ बदलावों के साथ कायम रखा था.

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फिलहाल पूर्वोत्तर भारत के सभी राज्यों में इनर लाइन परमिट लागू नहीं होता है. असम, त्रिपुरा और मेघालय इससे बाहर रहे हैं. हालांकि पूर्वोत्तर के सभी राज्य इसकी मांग करते रहे हैं. नॉर्थ ईस्ट स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में इनर लाइन परमिट व्यवस्था लागू करने के लिए आंदोलना छेड़ती रही है.

2016 में जब मोदी सरकार ने पहली बार नागरिकता कानून लाने की कोशिश की उस दौरान पूर्वोत्तर में बहुत प्रतिरोध हुआ. कई महीनों तक पूर्वोत्तर देश के दूसरे भाग से कटा रहा. सरकार पीछे हटी. उसने उन तैयारियों पर गौर किया जिसे वह दोबारा इस कानून को लाने से पहले पूरी करना चाहती थी. उनमें से एक है मणिपुर में आईएलपी लागू करना. पिछले साल मणिपुर में भाजपा सरकार ने एक विधेयक पारित किया था जिसमें ‘गैर-मणिपुरी’ और ‘बाहरी’ लोगों के लिए  राज्य में प्रवेश के लिए कड़े नियमों के प्रावधान किए गए थे. लेकिन मणिपुरी कौन हैं और कौन नहीं इसको लेकर आमराय बन नहीं पा रही थी इसलिए केंद्र ने इसे रोके रखा था. हालांकि बाद में सहमति बनी. तो अब जबकि इसकी मंजूरी मिल गई है तो मणिपुर में क्या फर्क पड़ेगा उसे समझते हैं.

अब डीएम या संबंधित अधिकारी को चीफ रजिस्ट्रेशन ऑथोरिटी बनाकर मणिपुर में बाहर से आए लोगों का पंजीकरण कार्य कराया जाएगा. बाहरी लोगों को अब मणिपुर आने पर पहले उस संबंधित रजिस्ट्रेशन अथोरिटी में खुद को पंजीकृत कराना जरूरी होगा. वह अथॉरिटी आने का पर्याप्त कारण जानने के बाद संतुष्ट होने पर राज्य में रूकने की अनुमति दे सकती है जिसकी समय सीमा अधिकतम छह महीने होगी. यानी छह महीने से अधिक कोई भी बाहरी व्यक्ति राज्य में नहीं रह सकेगा. इससे बाहरी लोगों के यहां बस जाने का प्रश्न ही खत्म हो जाएगा.

हालांकि आवश्यकतानुसार समय-समय पर नजदीकी रजिस्ट्रेशन सेंटर के जरिए इस समयावधि को बढ़ाया जा सकेगा. यानी छह महीने की अवधि बीतने के बाद उसे फिर से आगे बढ़ाया जा सकता है लेकिन रहने वाले व्यक्ति की हैसियत एक किराएदार जैसी ही होगी. ऐसा प्रावधान किसी व्यापारिक या औद्योगिक कार्य से राज्य में प्रवेश करने वाले लोगों की सुविधा के लिए किया गया है जिन्हें उनका काम समाप्त होने की अवधि तक राज्य में ठहरने की अनुमति दी जा सके. अगर किसी व्यक्ति को रजिस्ट्रेशन सेंटर पर परमिट नहीं मिलती है, तो उस राज्य के चीफ रजिस्ट्रेशन ऑथोरिटी में इस बारे में शिकायत दर्ज करा सकता है. लेकिन अगर राज्य से बाहर का कोई व्यक्ति बिना रजिस्ट्रेशन के यहां रहते हुए पाया जाता है, तो उसे फौरन वापस भेज दिया जाएगा.

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इसके साथ ही स्थानीय मकान मालिकों को भी किराए पर रह रहे बाहरी लोगों के बारे में हर 15 दिन में चीफ रजिस्ट्रेशन ऑथोरिटी को रिपोर्ट देना होगा. अगर मकान मालिकों ने ऐसा नहीं किया, तो उनके ऊपर पांच से दस हजार रुपए का जुर्माना लगेगा. केंद्र सरकार, राज्य सरकार, सरकारी संस्थाओं या कानूनी रूप से स्वीकार्य स्थानीय संस्थाओं में कार्यरत बाहरी लोगों पर इस बिल का कोई प्रावधान लागू नहीं होगा. अगर सरल शब्दों में कहें तो यदि कोई आईएएस अधिकारी या किसी भी अन्य सरकारी संस्था के लिए काम करने वाला व्यक्ति यहां पदस्थापित है तो उसपर आईएलपी लागू नहीं होगा. लेकिन उसे यहां रहने की अनुमति सिर्फ उसके कार्यकाल के दौरान ही होगी.

अब सवाल यह उठता है कि हम अंग्रेजों के दौर के कानूनों को खत्म करते जा रहे हैं फिर इस अंग्रेजी फरमान को क्यों अपनाया जा रहा है. 1971 के मुक्तिवाहिनी ने पाकिस्तान सरकार के खिलाफ विद्रोह का बिगूल फूंका और आजादी की जंग छेड़ दी. इससे भन्नाई पाकिस्तानी सेना ने बगावत को कुचलने के लिए अपने जुल्म की सारी सीमाएं पार कर दीं. बांग्लादेश से बड़ी संख्या में बांग्लादेशी नागरिक भागे. चूंकि भारत के पूर्वोत्तर कई राज्यों की सीमाएं बांग्लादेश से लगती हैं इसलिए जिसे जिधर से जगह मिली उधर से भागा और जहां पहुंच सकता था वहां पहुंचा. बांग्लादेश से आने वाले लोगों की संख्या करोड़ों में पहुंच गईं तो स्थानीय आबादी को यह बात खटकने लगी. पहले तो लगा था कि बांग्ला युद्ध खत्म होने के बाद भागकर आए लोग लौट जाएंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं. सरकार ने बांग्लादेश से आए लोगों की नागरिकता पंजीकरण के आवेदनों को स्वीकार करना 1972 में जब तक बंद किया तब तक कई करोड़ लोग आ चुके थे जिनमें हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल थे. पूर्वोत्तर के लोगों ने इसे अपने संसाधनों पर बोझ और अपनी सभ्यता संस्कृति पर खतरे के रूप में देखा और सभी राज्यों में इनर लाइन परमिट की मांग को बल मिला.

नागरिकता संशोधन विधेयक पर संसद में चर्चा अगर आपने सुनी हो तो बार-बार सरकार की ओर से पूर्वोत्तर के संदर्भ में इनर लाइन परमिट के साथ भारतीय संविधान की छठी अनुसूची का भी ज़िक्र किया गया. सरकार संसद में और प्रधानमंत्री रैलियों में कहते रहे कि पूर्वोत्तर के लोगों की सभ्यता संस्कृति भाषा की रक्षा के लिए पूरी व्यवस्था की गई है. भारतीय संविधान की छठीं अनुसूची पूर्वोत्तर भारत के लिए सुरक्षा कवच है और असम के लिए असम समझौते का  खंड6 लागू होगा. छठी अनुसूची कैसे ढाल बनेगी इसे समझते हैं. छठीं अनूसूची में पूर्वोत्तर भारत के असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम राज्य हैं जहां संविधान के मुताबिक स्वायत्त ज़िला परिषदें हैं जो स्थानीय आदिवासियों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करती हैं. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 244 में इसका प्रावधान किया गया है. संविधान सभा ने 1949 में इसके ज़रिए स्वायत्त ज़िला परिषदों का गठन करके राज्य विधानसभाओं को संबंधित अधिकार प्रदान किए थे. क्षेत्रीय परिषद का उद्देश्य स्थानीय आदिवासियों की सामाजिक, भाषाई और सांस्कृतिक पहचान बनाए रखना है. इसलिए छठी अनूसूची में आने वाले पूर्वोत्तर भारत के राज्यों को नागरिकता संशोधन विधेयक के दायरे से बाहर रखा गया है. सरल शब्दों में कहें तो इसका अर्थ हुआ कि अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से 31 दिसंबर 2014 से पहले आए हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन और ईसाई शरणार्थी भारत की नागरिकता हासिल करके भी असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम में ज़मीन का मालिकाना हक या फिर क़ारोबारी अधिकार हासिल नहीं कर पाएंगे.

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